"एकादशोपनिषद प्रसाद" की इस चौथी कड़ी में हम प्रवेश करते हैं ईशावास्योपनिषद प्रसाद के द्वितीय श्लोक में।
यह श्लोक कर्म और जीवन-यात्रा की दिशा को स्पष्ट करता है।
श्लोक कहता है कि मनुष्य को सौ वर्षों तक कर्म करते हुए जीना चाहिए, क्योंकि ऐसा जीवन ही मोक्ष की ओर ले जाने वाला है। यहाँ "कर्म" का अर्थ केवल भौतिक क्रियाओं से नहीं, बल्कि कर्तव्य, धर्म और समर्पित साधना से है।
इस एपिसोड में हम विस्तार से चर्चा करेंगे—ईशावास्योपनिषद के दूसरे श्लोक का मूल पाठ और भावार्थ
कर्मयोग की व्याख्या : कर्म से भागना नहीं, कर्म में ही आत्मा का प्रकाश खोजना
जीवन में कर्म और त्याग का संतुलन
यह श्लोक आधुनिक जीवन में कैसे मार्गदर्शक हो सकता है
उपनिषद का यह सन्देश कि मोक्ष कर्म का त्याग नहीं, बल्कि कर्म का शुद्धीकरण है।
एपिसोड का सार:
ईश्वर सर्वत्र है, और जब मनुष्य अपने कर्मों को ईश्वरार्पण भाव से करता है, तो वह जीवन के बंधनों से मुक्त होकर आत्मा की परम शांति को प्राप्त करता है।
इस प्रकार, ईशावास्योपनिषद हमें यह सिखाता है कि कर्म ही साधना है, कर्म ही पूजा है, और कर्म में ही मोक्ष का द्वार है।
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