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संत चरित्रावली

संत चरित्रावली

著者: रमेश चौहान
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このコンテンツについて

‘संत चरित्रावली’ एक आध्यात्मिक श्रवण यात्रा है, जिसमें विश्व के महान संतों, ऋषियों और आध्यात्मिक विभूतियों के जीवन, शिक्षाओं और आत्मानुभूतियों को रोचक व प्रेरणादायी शैली में प्रस्तुत किया जाएगा। प्रत्येक एपिसोड एक संत के जीवन पर केंद्रित होगा — उनके संघर्ष, साधना, अनुभव और समाज को दिए गए संदेशों को सरल भाषा में श्रोताओं तक पहुँचाना इस श्रृंखला का उद्देश्य है। यह शो न केवल ऐतिहासिक और आध्यात्मिक जानकारी प्रदान करेगा, बल्कि आज के जीवन में संतवाणी की प्रासंगिकता को भी उजागर करेगा।रमेश चौहान スピリチュアリティ
エピソード
  • तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ
    2025/08/20
    जैन धर्म की गौरवशाली परंपरा में 24 तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है, जिनमें तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जीवन अत्यंत प्रेरणादायी और शिक्षाप्रद माना जाता है। इस एपिसोड में हम उनके जीवन, तपस्या, शिक्षाओं और उनके द्वारा दिए गए आध्यात्मिक मार्गदर्शन पर विस्तार से चर्चा करेंगे।पार्श्वनाथ का जन्म लगभग 877 ईसा पूर्व वाराणसी में हुआ था। उनके पिता अश्वसेन वाराणसी के राजा थे और माता का नाम वामा देवी था। बचपन से ही उनमें करुणा, दया और सत्य के प्रति गहरा झुकाव था। वे सांसारिक ऐश्वर्य से घिरे होने के बावजूद साधारण जीवन की ओर आकर्षित रहते थे।किशोरावस्था में ही पार्श्वनाथ ने देखा कि भौतिक सुख-सुविधाएं क्षणभंगुर हैं। वे जीव हिंसा से बचने, संयमित जीवन जीने और सत्य की खोज करने लगे। एक कथा के अनुसार उन्होंने एक बार देखा कि एक साधु अग्निहोत्र कर रहा है और उसमें जीवित सर्प को जलाने की तैयारी है। उन्होंने करुणा और विवेक से सर्प को बचा लिया। यह घटना उनके भीतर अहिंसा और दया के बीज को और गहरा कर गई।युवा अवस्था में ही उन्होंने यह निश्चय किया कि सांसारिक सुख और राजमहल की विलासिता आत्मज्ञान की राह में बाधक हैं। इसलिए 30 वर्ष की आयु में उन्होंने गृहत्याग कर दीक्षा ली।वे गहन ध्यान और कठोर तपस्या में लीन हो गए। उन्होंने सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और आत्मसंयम को अपना जीवन मंत्र बना लिया।✨ जन्म और प्रारंभिक जीवन🌱 बाल्यावस्था का आध्यात्मिक झुकाव🕉️ गृहत्याग और दीक्षा🔥 तपस्या और सर्वज्ञता की प्राप्ति तपस्या और सर्वज्ञता की प्राप्तिकठोर साधना और ध्यान के वर्षों बाद उन्हें सर्वज्ञत्व की प्राप्ति हुई। इस अवस्था में उन्होंने जीवन और ब्रह्मांड के रहस्यों को जाना और आत्मा की अनंत शक्ति का अनुभव किया। उनकी शिक्षाओं का सार यही था कि आत्मा शुद्ध, अमर और मुक्त है, केवल मोह और कर्म बंधन उसे संसार में बांधते हैं।पार्श्वनाथ ने अपने जीवन में अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह को प्रमुख सिद्धांत के रूप में प्रचारित किया।उनकी चार मुख्य प्रतिज्ञाएँ इस प्रकार थीं—अहिंसा (किसी जीव को न मारना)सत्य (सत्य बोलना)अस्तेय (चोरी न करना)अपरिग्रह (अत्यधिक संग्रह न करना)इन सिद्धांतों को उन्होंने समाज में फैलाया और असंख्य लोगों को आध्यात्मिक पथ पर ...
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    7 分
  • पैगम्बर जरथुश्त्र: जीवन और शिक्षाएँ
    2025/08/15
    “संत चरित्रावली” के इस सातवें एपिसोड में हम आपको प्राचीन ईरान के महान पैगम्बर और आध्यात्मिक मार्गदर्शक जरथुश्त्र (Zoroaster) के अद्भुत जीवन, शिक्षाओं और उनके धर्म जरथुश्त्रमत (ज़ोरोएस्ट्रियनिज़्म) की महिमा से परिचित कराएंगे। यह कथा केवल एक धार्मिक आचार्य की जीवनी नहीं, बल्कि मानवता के नैतिक उत्थान की अमर गाथा है।जरथुश्त्र का जन्म लगभग 1800–1200 ईसा पूर्व ईरान के उत्तर-पूर्व क्षेत्र में हुआ माना जाता है। उनके पिता का नाम पौरुषस्प और माता का नाम दुग्धोवा था। बचपन से ही वे अद्भुत तेजस्वी, करुणाशील और सत्य के खोजी थे।परंपरा के अनुसार, उनके जन्म के समय ही अनेक अलौकिक संकेत प्रकट हुए, जो उनके भविष्य में महान पैगम्बर बनने का द्योतक थे।युवा अवस्था में ही जरथुश्त्र ने सांसारिक मोह को त्यागकर सत्य और परमात्मा की खोज में तपस्या और ध्यान आरंभ किया। इसी साधना के दौरान उन्हें अहुरमज़दा (सर्वोच्च ईश्वर) का साक्षात्कार हुआ।उन्होंने अहुरमज़दा और छह पवित्र अमर आत्माओं (Amesha Spentas) से संवाद किया, जिनसे उन्होंने धर्म, सत्य, न्याय और प्रकाश के सिद्धांत सीखे।जरथुश्त्र के जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय उनका अंग्रह मैन्‍यु (Angra Mainyu) यानी दुष्ट आत्मा के साथ संघर्ष है। उन्होंने अपने दृढ़ विश्वास और दिव्य ज्ञान से न केवल इन दुष्ट शक्तियों को परास्त किया, बल्कि लोगों को अंधविश्वास, हिंसा और झूठ से दूर रहने का संदेश दिया।जरथुश्त्र ने अपने धर्म के मूल सिद्धांत—अच्छे विचार, अच्छे शब्द और अच्छे कर्म (Good Thoughts, Good Words, Good Deeds)—को जन-जन तक पहुंचाने के लिए अनेक यात्राएँ कीं।कहा जाता है कि उन्होंने भारत और चीन तक यात्रा की और वहां भी लोगों को नैतिकता, पर्यावरण संरक्षण और सत्यनिष्ठा का संदेश दिया।उनकी शिक्षाओं ने ईरान के सम्राट विशतास्प को भी प्रभावित किया। जब विशतास्प ने जरथुश्त्र के धर्म को स्वीकार किया, तो इसका विरोध करने वाले राज्यों के साथ दो बड़े युद्ध हुए। इन संघर्षों में अंततः सत्य और न्याय की विजय हुई।जरथुश्त्र के जीवन में अनेक चमत्कार जुड़े हैं—बीमारों को ठीक करना, सूखी धरती पर वर्षा लाना, और हिंसक लोगों के हृदय को करुणा से भर देना।किंवदंती है कि अपने 77वें वर्ष में, एक आक्रमण के दौरान, मंदिर में प्रार्थना करते हुए उनका देहावसान हुआ। ...
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    8 分
  • तिरुमूलर नायनार — करुणा और योग सिद्धि के अमर संत
    2025/08/12
    भारतीय संत परंपरा में तिरुमूलर नायनार का नाम एक अनोखी आध्यात्मिक गाथा के साथ जुड़ा हुआ है। वे केवल एक महान योगी और सिद्धपुरुष ही नहीं थे, बल्कि करुणा, भक्ति और योगबल के अद्वितीय संगम का जीवंत उदाहरण भी हैं। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि सच्चा योग केवल साधना में नहीं, बल्कि दूसरों के दुःख को अपना समझने में निहित है।तिरुमूलर नायनार मूल रूप से कैलास में स्थित महान योगियों के समुदाय का हिस्सा थे। भगवान शिव के वाहन नंदी के आशीर्वाद से उन्होंने अष्ट सिद्धियाँ — अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व — प्राप्त कर ली थीं। इन सिद्धियों के बावजूद उनका जीवन अत्यंत सरल और विनम्र था।किंवदंती है कि नंदी के आदेश पर उन्होंने कैलास से भारत के दक्षिणी भूभाग की यात्रा की, ताकि वे योग और शिवभक्ति का संदेश फैला सकें।एक दिन, जब वे तिरुवाडुतुरै के पास पहुँचे, उन्होंने देखा कि एक ग्वाला अचानक मृत्यु को प्राप्त हो गया है। उसके आसपास की गायें बिलख रही थीं और भयभीत होकर इधर-उधर भटक रही थीं। इस दृश्य ने तिरुमूलर नायनार के हृदय को गहरे तक छू लिया।अपने योगबल से उन्होंने परकाया प्रवेश की सिद्धि का उपयोग किया — अर्थात्, उन्होंने उस मृत ग्वाले के शरीर में प्रवेश किया, ताकि गायों की देखभाल कर सकें। इस समय उनका अपना मूल शरीर पास ही सुरक्षित रखा गया था।जब वे अपने मूल शरीर में लौटने के लिए आए, तो पाया कि वह अदृश्य हो चुका है। यह एक गूढ़ रहस्य था, जिसे उन्होंने भगवान शिव की इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया। उन्होंने यह समझा कि अब उनका जीवन इस ग्वाले के रूप में ही आगे बढ़ना है।इसके बाद तिरुमूलर नायनार ने उस ग्वाले के रूप में ही तप, साधना और समाज सेवा जारी रखी।अपने साधना काल में उन्होंने एक महाग्रंथ की रचना की, जिसे ‘तिरुमन्तिरम्’ कहा जाता है। यह ग्रंथ तमिल भाषा में रचा गया और इसमें वेदों, उपनिषदों, योगशास्त्र और शिवभक्ति का सार समाहित है।इस ग्रंथ की विशेषताएँ —इसमें 3000 पद हैं (किंवदंती में कभी-कभी इसे तीन सौ कहा जाता है, लेकिन वास्तव में यह तीन हजार से अधिक हैं)।इसमें योग के आठ अंग, भक्ति के मार्ग और आत्मा-परमात्मा के मिलन की व्याख्या है।यह केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि सामाजिक नैतिकता, स्वास्थ्य, ध्यान और ...
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    5 分
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