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Shri Bhagavad Gita Chapter 12 | श्री भगवद गीता अध्याय 12

Shri Bhagavad Gita Chapter 12 | श्री भगवद गीता अध्याय 12

著者: Yatrigan kripya dhyan de!
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このコンテンツについて

This chapter begins with Arjun asking Shree Krishna about the two types of yogis and among them whom does He consider perfect. Those who worship the formless Brahman or those who are devoted to the personal-form of God. Shree Krishna declares that devotees can attain Him by both paths. However, He considers those who worship His personal-form as the best yogis. In this small chapter of 20 verses, Shree Krishna emphasizes that the path of devotion is the highest among all types of spiritual practices.Yatrigan kripya dhyan de! スピリチュアリティ ヒンズー教
エピソード
  • Shri Bhagavad Gita Chapter 12 | श्री भगवद गीता अध्याय 12 | श्लोक 20
    2025/04/18

    यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के बारहवें अध्याय (भक्तियोग) का अंतिम (20वाँ) श्लोक है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने परमप्रिय भक्तों का उल्लेख कर रहे हैं।

    "ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
    श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया:॥"

    "जो श्रद्धा और निष्ठा के साथ इस धर्ममय और अमृत तुल्य उपदेश का अनुसरण करते हैं, जो मुझे ही परम लक्ष्य मानते हैं और मुझमें पूर्ण रूप से समर्पित रहते हैं—वे भक्त मुझे अत्यंत प्रिय हैं।"

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 12 | श्री भगवद गीता अध्याय 12 | श्लोक 19
    2025/04/18

    यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के बारहवें अध्याय (भक्तियोग) का 19वाँ श्लोक है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय भक्तों के लक्षण बताते हैं।

    "तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
    अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर:॥"

    "जो निंदा और स्तुति (प्रशंसा) को समान रूप से स्वीकार करता है, जो मितभाषी (अल्प बोलने वाला) है, जो किसी भी परिस्थिति में संतुष्ट रहता है, जो किसी स्थान या वस्तु से आसक्त नहीं है, और जिसकी बुद्धि स्थिर है—ऐसा भक्त मुझमें दृढ़ निष्ठा रखने वाला है और वह मुझे अत्यंत प्रिय है।"

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  • Shri Bhagavad Gita Chapter 12 | श्री भगवद गीता अध्याय 12 | श्लोक 18
    2025/04/17

    यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के बारहवें अध्याय (भक्तियोग) का 18वाँ श्लोक है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय भक्तों के गुणों का वर्णन कर रहे हैं।

    "सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो:।
    शीतोष्णसुखदुःखेषु सम: सङ्गविवर्जित:॥"

    "जो शत्रु और मित्र दोनों के प्रति समानभाव रखता है, मान और अपमान में सम रहता है, सर्दी-गर्मी, सुख-दुख में समान रहता है, और आसक्ति से रहित होता है—ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।"

    संस्कृत श्लोक:हिंदी अनुवाद:

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